उत्तराखंड में हुई प्राकृतिक आपदाएं

विशिष्ट भौगोलिक संरचना के कारण उत्तराखंड को प्रतिवर्ष प्राकृतिक आपदाओं का सामना करना पड़ता है, जिससे अनेक जन-धन की हानि होती है। यद्यपि प्राकृतिक आपदाओं को रोक पाना असंभव है, फिर भी पूर्व तैयारी, बचाव, राहत कार्य, पुनर्वास आदि के द्वारा इसके प्रभाव को कम किया जा सकता है।


उत्तराखंड राज्य में मुख्य रूप भूकम्प, भूस्खलन, अतिवृष्टि अथवा बादल फटना, बाढ़, हिमपात के समय हिमखण्डों का गिरना व वनाग्नि आदि प्राकृतिक आपदाएं आते हैं। ये आपदाएं प्रायः एक दूसरे से संबद्ध होते हैं। जैसे – भूकम्प से भूस्खलन से बाढ़, अतिवृष्टि से भूस्खलन से बाढ़, भूस्खलन से बाढ़, बाढ़ से भूस्खलन आदि ।

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अतिवृष्टि


बरसात के मौसम में अचानक किसी क्षेत्र विशेष में अधिक वर्षा अर्थात बादल फटने से प्रायः प्रत्येक वर्ष राज्य को व्यापक जन-धन की हानि का सामना करना पड़ता है। अतिवृष्टि से भूस्खलन तथा बाढ़ जैसी आपदाओं सिलसिला शुरू हो जाता है।


हिमखंडों का गिरना


राज्य के ऊँचाई वाले क्षेत्रों में जहाँ बर्फवारी अधिक होती है, वहाँ शीत ऋतु में पहाड़ों से हिमखंडों के लुढ़कने व गिरने की घटनाएं होती हैं। पहाड़ों या ढलानों पर सामान्य से अकि वर्फ जमा हो जाने पर वे ढलान या घाटियों में गिरते हैं, जिससे वहाँ स्थित जन-धन की हानि होती है।


वनाग्नि


राज्य में कुल भू-भाग के लगभग 45% भाग पर वन है। कभी-कभी प्राकृतिक (पत्थरों के घर्षण से उत्पन्न अग्नि) या मानवजनित (जलती माचिस की तीली या बीड़ी-सिगरेट फेंकने या कृषकों द्वारा खेतों का अवशेष जलाने या समझ-बूझकर आग फेंकने या वनों की अवैध चोरी रोकने या किसी औद्योगिक असावधानी या किसी उत्सव की आतिशबाजी) कारणों से राज्य को वनाग्नि का सामना करना पड़ता है। इससे कभी-कभी प्रत्यक्ष मानव शरीर व बस्तियों, वन्य जीवों, वन क्षेत्रफल, वन आधारित उद्योगों तथा पर्यावरण पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।


बाढ़


राज्य में नदियों की अधिकता होने के बावजूद अत्यधिक ढाल होने के कारण बाढ़ कम आते है। लेकिन वर्षा और परिणामस्वरूप भूस्खलन से नदी मार्ग अवरुद्ध होने या बांधों के धंसने-टूटने से राज्य को बाढ़ जैसी आपदा का सामना करना पड़ता है। राज्य के मैदानी क्षेत्रों (किच्छा, सितारगंज, रूद्रपुर आदि) में कभी-कभी बाढ़ आ जाती हैं।


भूकम्प


वैज्ञानिकों ने भारत को 5 भूकम्पीय क्षेत्रों (जोन) में बांटा है, जिनमें दो क्षेत्र (जोन) उत्तराखण्ड में पड़ते हैं। देहरादून, टिहरी, उत्तरकाशी, नैनीताल, ऊधम सिंह नगर जिले संवेदनशील जोन-4 में आते हैं। जबकि चमोली, रूद्रप्रयाग, अल्मोड़ा, बागेश्वर, पिथौरागढ़ व चंपावत अति संवेदनशील जोन-5 में आते हैं। इनमें भी धारचूला, मुनस्यारी, कपकोट, भराड़ी, चमोली व उत्तरकाशी के भूभाग अत्यन्त संवेदनशील है।


ध्यातव्य है कि भूकम्प भूपटल की कम्पन अथवा लहर है जो धरातल के नीचे अथवा ऊपर चट्टानों के लचीलेपन या गुरुत्वाकर्षण की समस्थिति में क्षणिक अव्यवस्था होने से उत्पन्न होती है। यह सबसे ज्यादा अपूर्व सूचनीय और विध्वंसक प्राकृतिक आपदा है।


भूकंपों की उत्पत्ति विवर्तनिकी गतिविधियों, भू-स्खलन, भ्रंश, ज्वालामुखी विस्फोट, बांधों या जलाशयों के धसने आदि अनेक कारणों से होती है। लेकिन पृथ्वी के एस्थिनोस्फीयर के मैग्मा में बहने वाली धाराओं (तरंगों) के कारण प्लेटों की गतिशीलता से उत्पन्न भूकम्प ज्यादा विनाशकारी होते हैं। जबकि भूस्खलन, बाँधों जलाशयों या अन्य भूमि को धँसने तथा ज्वालामुखी विस्फोट आदि कारणों से उत्पन्न भूकम्प कम क्षेत्रों को प्रभावित करने वाले और कम विनाशकारी होते हैं।


वैज्ञानिकों के अनुसार हिमालय क्षेत्र (उत्तराखण्ड) में भूकम्प प्रायः प्लेटों की गतिशीलता और भ्रंशों की उपस्थिति के कारण आते हैं।


इंडियन प्लेट प्रतिवर्ष उत्तर व उत्तर-पूर्व की दिशा में एक सेमी. (कुछ विद्वानों के अनुसार 5 सेमी.) खिसक रही है।  परन्तु उत्तर में स्थित स्थिर यूरेशियन प्लेट (तिब्बत प्लेट) इसके लिए अवरोध पैदा करती है। परिणामस्वरूप इन प्लेटों के किनारे लॉक हो जाते हैं और कई स्थानों पर लगातार ऊर्जा संग्रह होता रहता है। अधिक मात्रा में ऊर्जा संग्रह से तनाव बढ़ता है और दोनों प्लेटों के बीच लॉक टूट जाता है और एकाएक ऊर्जा निकलने से हिमालय के चाप के साथ भूकंप आ जाता है।


वृहत्त हिमालय तथा मध्य हिमालय के मध्य मुख्य केन्द्रीय भ्रंश रेखा स्थित है, जोकि चमोली, गोपेश्वर, देवलधार, पीपलकोटी गुलाबगोटी तथा गंगा घाटी से गुजरती हुई कुमाऊँ के कई स्थानों से होते हुए नेपाल की ओर चली जाती है। वैज्ञानिकों के अनुसार यह रेखा टिहरी बांध के भी नीचे से गुजरती है। इसी तर्क को लेकर पर्यावरणविद् सुन्दरलाल बहुगुणा टिहरी बांध का विरोध करते रहे हैं।


राष्ट्रीय भू-भौतिकी प्रयोगशाला, भारतीय भूगर्भीय सर्वेक्षण संस्थान, मौसम विज्ञान विभाग एवं राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन संस्थान, आदि ने भारत को अधोलिखित पांच भूकम्प प्रभावी क्षेत्रों (जोन) में बांटा है।


1. न्यूनतम प्रभाव क्षेत्र – 5 से कम तीव्रता

2. न्यून प्रभाव क्षेत्र – 5.01 से 6 तीव्रता
3. मध्यम प्रभाव क्षेत्र – 6.01 से 7 तीव्रता
4. अधिक प्रभाव क्षेत्र 7.01 से 9 तीव्रता
5. अधिकतम प्रभाव क्षेत्र – 9 से अधिक तीव्रता

भूकम्प प्रभाव की दृष्टि से हिमालयी क्षेत्र को जिसमें कि उत्तराखण्ड भी है, अधिकतम एवं अधिक प्रभाव क्षेत्र के अन्तर्गत रखा गया है। इस क्षेत्र में भारत के कुल भूकंपों के 68% और विश्व के संदर्भ में 10% भूकंप आते है। एक अनुमान के अनुसार प्रत्येक 50 वर्षो में यहाँ एक बड़ा भूकम्प आता है।

उत्तराखण्ड में आये भूकम्पों में से प्रमुख विनाशकारी भूकम्प

वर्ष

स्थान

रिक्टर स्केल

22 मई 1803

उत्तरकाशी

6.0

1 सितम्बर 1803

बद्रीनाथ 

9.0

मार्च 1809

गढ़वाल

8.0

28 मई 1816

गंगोत्तरी

7.0

28 अक्टू. 1916

पिथौरागढ़ 

7.5

14 मई 1935

लोहाघाट

7.0

2 अक्टूबर 1937

देहरादून 

8.0

4 जून 1945

अल्मोड़ा

6.5

28 दिसम्बर 1958

चमोली / धारचूला 

6.25

27 जुलाई 1966

कपकोट

6.3

28 अगस्त 1968

धारचूला

7

21 मई, 1979

धारचूला

6.5

29 जु. 1980

धारचूला

6.5

20 अक्टूबर 1991

उत्तरकाशी

6.6

29 मार्च 1999

चमोली

6.8

14 दिसम्बर 2005

सम्पूर्ण प्रदेश

5.2

23 जुलाई 2007

सम्पूर्ण प्रदेश

5.0

भूकंप की तीव्रता मापने हेतु राज्य में तीन भूकंपमापी (सिसमिक) स्टेशन क्रमशः देहरादून, टिहरीगरूड़गंगा (चमोली) में स्थापित किये गये हैं।

भूस्खलन


भूस्खलन सामूहिक स्थानान्तरण का एक – प्रक्रम है जिसमें शैलें तथा शैलचूर्ण गुरूत्व के कारण ढालों पर नीचे की ओर सरकते हैं। इसमें कभी-कभी जल भी उपस्थित रहता है। राज्य में विगत 100 वर्षों में 50 से अधिक विनाशकारी से भू स्खलन हो चुके हैं। भूकम्प, अतिवृष्टि, पहाड़ी ढलानों पर तेजी से पानी बहना तथा चट्टानों में पानी जमा होना व दरारों में बर्फ का जमना आदि प्राकृतिक कारणों और ढालों पर सड़क व बाँध निर्माण, नहरें, खदान एवं उत्खनन, अतिचारण, निर्वनीकरण, अवैज्ञानिक कृषि आदि मानवीय कारणों से भूस्खलन होते हैं। भारी वर्षा, भूकंप तथा निर्वनीकरण से भूस्खलन क्रिया त्वरित होती है।


पदार्थ एवं उसके स्थानान्तरण के आधार पर भूस्खलन अनेक प्रकार के होते है। जैसे शैल या मृदा अवपतन, सर्पण, प्रवाह आदि।


भूस्खलनों का प्रभाव अपेक्षाकृत छोटे क्षेत्र में पाया जाता है तथा स्थानीय होता है। परन्तु सड़क मार्ग में अवरोध, रेलपटरियों का टूटना और जल वाहिकाओं में चट्टानें गिरने से पैदा हुई रूकावटों के गंभीर परिणाम हो सकते हैं। भूस्खलन की वजह से हुए नदी रास्तों में बदलाव बाढ़ ला सकते हैं और जान माल का नुकसान हो सकता है। इससे इन क्षेत्रों में आवागमन मुश्किल हो जाता है और विकास कार्यो की रफ्तार धीमी पड़ जाती है।


उत्तराखंड में हुई प्रमुख आपदाएं


23 जुन, 1980 उत्तरकाशी के ज्ञानसू में भूस्खलन से तबाही।

1991- 1992 चमोली के पिंडर घाटी में भूस्खलन।

11 अगस्त, 1998 रुद्रप्रयाग के उखीमठ में में भूस्खलन।

17 अगस्त, 1998 पिथौरागढ़ के मालपा में भूस्खलन में लगभग 350 लोगों की मृत्यु।

10 अगस्त, 2002 टिहरी के बुढाकेदार में भूस्खलन।

2 अगस्त, 2004 टिहरी बाँध में टनल धसने से 29 लोगों की मृत्यु।

7 अगस्त, 2009 पिथौरागढ़ के मुनस्यारी में अतिवृष्टि।

17 अगस्त, 2010 बागेश्वर के कपकोट में सरस्वती शिशु मंदिर भूस्खलन की चपेट में 18 बच्चों की मृत्यु।

16 जून, 2013 केदारनाथ में अलकनंदा नदी में आपदा से हजारों लोगो की मृत्यु।

16 जून, 2013 पिथौरागढ़ के धारचूला धौलीगंगा व काली नदी में आपदा।


सबसे बड़ी प्राकृतिक आपदा  


16 से 17 जून, 2013 तक राज्य में हुए लगातार वृष्टि व बादल फटने के परिणामस्वरूप भूस्खलन व नदियों ( सरस्वती गंगा, मधु गंगा, दूध गंगा, मंदाकिनी, काली, अलकनंदा, लक्ष्मणगंगा, अस्सीगंगा, कंचनगंगा, पिण्डर, भागीरथी आदि) में तीव्र ऊफान के कारण रूद्रप्रयाग, चमोली, में उत्तरकाशी, पौढ़ी, टिहरी व पिथौरागढ़ जिलों में व्यापक जन-धन की हानि हुई। राज्य के ज्ञात इतिहास में यह सबसे बड़ी आपदा थी । इसमें हजारों व्यक्ति व मवेशी मलवे में दब व जल प्रवाह में बहकर कालकलवित हो गये। सैकड़ों होटल व धर्मशालाएं व हजारों मोटर गाड़िया नष्ट हो गई। इसमें 24 विद्युत परियोजनाओं को भारी नुकसान हुआ जबकि 5 छोटी परियोजनाओं का अस्तित्व ही समाप्त हो गया। इस आपदा में प्रदेश के हजारों गांव प्रभावित हुए, जिनमें से सैकड़ो गांव बर्वादी की कगार पर पहुँच गये। इनमें से कई गावों व बाजारों का तो अस्तित्व ही समाप्त हो गया। सड़कों के टूटने व कई पुलों के बह जाने से राज्य के निवासियों के अलावा लाखों तीर्थ यात्री व पर्यटक केदारनाथ, बद्रीनाथ, गंगोत्री, यमुनोत्री, हेमकुण्ड साहिब व मुनस्यारी आदि स्थलों या इनके मार्गों में फस गये। सुरक्षित स्थान, भोजन-पानी व उपचार की तलाश में इधर-उधर भटक जाने व राहत कार्य देर से शुरू होने के कारण भी सैकड़ों यात्री व ग्रामीण काल के गाल समा गये।


इस आपदा में 3886 लोग या तो मारे गए अथवा लापता हुए। इसमें से मात्र 644 शव अथवा कंकाल मिले हैं। 3242 लोगों का कोई पता नहीं चल पाया। बाद में इन सभी लोगों को मृत मानकर उनके परिजनों को मुआवजा दिया गया।


18 जुलाई 2013 को राज्य सरकार द्वारा जारी आकड़ों के अनुसार इस आपदा में लगभग 13000 करोड़ रु. की क्षति हुई है। सर्वाधिक क्षति रुद्रप्रयाग में हुई।


केदारनाथ मंदिर परिसर, मंदाकिनी घाटी, बद्रीनाथ, हेमकुण्ड साहिब, पांडुकेश्वर, गोबिन्दघाट, घंघरिया, श्रीनगर, हर्षिल, भटवाड़ी, धनोल्टी, नैनबाग, बर्नीगाड समेत गंगा घाटी के कई स्थानों व पिथौरागढ़ के मुनस्यारी आदि इलाकों में जन-धन की हानि हुई । इनमें सर्वाधिक क्षति रूद्र प्रयाग जिले, विशेषकर केदारनाथ धाम मंदाकिनी घाटी क्षेत्र में हुई।


रूद्रप्रयाग जिले में हुए सर्वाधिक तबाही के सन्दर्भ में भारतीय सुदूर संवेदन संस्थान (IIRS) के अनुसार तीव्र वर्षा के कारण केदारनाथ के उत्तर-पूर्व में सुमेरू पर्वत पर स्थित कंपेनियन व चोराबारी ग्लेशियर की ऊपरी परत पिघल व टूटकर गांधी सरोवर (चोराबारी झील) में गिरा, जिससे झील का जल केदारनाथ की ओर मलवे के साथ तीव्र वेग से प्रवाहित हुआ, जिस कारण मंदिर परिसर की लगभग 90 धर्मशालाएं व सैकड़ों दुकानें नष्ट हो गई और पूरा मंदिर परिसर मलवे से पट गया। सैकड़ों लोग मलवे में दब या बहकर कालकलवित हो गये।


झील व केदारघाटी का जल मंदाकिनी में तीव्र वेग से प्रवाहित हुआ, जिससे मंदाकिनी घाटी में व्यापक तबाही हुई। गौरीकुण्ड केदारनाथ पैदलमार्ग पर स्थित 100 से अधिक दुकानों वाले रामबाणा बाजार का अस्तित्व पूरी तरह समाप्त हो गया। गौरीकुण्ड, सोनप्रयाग, सीतापुर, सेमी, कुण्ड, काकड़ागाड, बासबाड़ा, स्यालसौड़, चन्द्रापुरी, गवनीगांव, गंगानगर, पुरानादेवल, विजयनगर, अगस्तमुनि, सिल्ली, सुमाड़ी व तिलवाड़ा भी भयावह स्थिति में पहुँच गये। ‘चन्द्रापुरी, बेडूबगड़, विजयनगर, सिल्ली व रूद्रप्रयाग संगम के पुल बह गये। मंदाकिनी घाटी में आपदा की सर्वाधिक मार झेलने वाली ऊखीमठ तहसील के 103 गांवों के सड़क व पैदल मार्ग पूरी तरह ध्वस्त हो गये। इनमें से कुछ गांव आधे तो कुछ पूरी तरह मंदाकिनी में विलीन हो गये ।


तबाही मचाने के बाद मंदाकिनी अब नये स्वरूप में है। पहले मंदाकिनी की लम्बाई 105 किमी. थी, लेकिन अब 110 किमी. हो गयी हैं। विजयनगर, सिल्ली, चंद्रापुरी, भीरी, गौरीकुण्ड व सोन प्रयाग में मंदाकिनी ने अपना पुराना रास्ता बदल दिया है।


इस आपदा में राज्य के कुल लगभग 4200 गांव आंशिक या पूर्ण रूप प्रभावित हुए, जिनमें से 59 गांव पूरी तरह समाप्त हो गये। 1324 मकान पूर्ण, 1126 अधिक व 3102 आंशिक क्षतिग्रस्त हुए। 40 मुख्य मार्ग, 501 संपर्क मार्ग व 308 पैदल मार्ग क्षतिग्रस्त हुए तथा कुल मिलाकर 89 पुल क्षतिग्रस्त हुए। इस तांडव के कारण रुद्रप्रयाग, चमोली, उत्तरकाशी, पिथौरागढ़, पौढ़ी और टिहरी के 435 गांवों के सामने पुनर्वास ही एकमात्र विकल्प बचा।


वर्षा के कारण राहत कार्य 17 जून से शुरू हो पाया। थल व वायु सेना के लगभग 6000, इण्डो-तिब्बत बार्डर पुलिस (ITBP) के लगभग 1500, नेशनल डिजास्टर रिस्पांस फोर्स (NDRF), सीमा सड़क संगठन (BRO) तथा राज्य पुलिस के जवानों व स्वयंसेवी संस्थाओं के सहयोग से 2 जुला. तक चलाये गये राहत अभियान ऑपरेशन सूर्या होप में आपदाग्रस्त इलाकों में राहत सामग्रियां पहुंचाई गई व एक लाख से अधिक यात्रियों व प्रदेशवासियों को बचाया गया। f राहत अभियान के दौरान 25 जून को गौरीकुण्ड के पास सेना का एमआई 17 वी हेलीकाप्टर दुर्घटनाग्रस्त हो गया जिसमें 20 जवान शहीद हो गये।


भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरों) के अनुसार आपदा के बाद राज्य में हजारों भूस्खलन क्षेत्र पैदा हो गये हैं, जिनमें से 992 क्षेत्र अकेले केदारघाटी क्षेत्र में हैं, जो कि भविष्य के लिए खतरे के संकेत हैं।


इस आपदा के कारण यमुनोत्री व गंगोत्री के केवल मार्ग (यमुनोत्री 103 दिन व गंगोत्री 98 दिन) ही बन्द रहे, लेकिन केदार ते बाबा का तो 86 दिन तक पूजा-अर्चन बाधित रहा।


आपदा के मूल कारण


राज्य में आई आपदा के पीछे मानव का ही हाथ है। मानव की अधोलिखित गतिविधियों को आपदा के कारण के रूप में देखा जा सकता है –


1. बढ़ता शहरीकरण – आबादी में वृद्धि के कारण राज्य में शहरीकरण तेजी से बढ़ा है। 1971 में राज्य में 16.36 प्रतिशत शहरी आबादी थी जो 1981 में बढ़कर 20.7 प्रतिशत, 1991 में 22.97 प्रतिशत, 2001 में 25.59 प्रतिशत व 2011 में 30 फीसद से अधिक हो चुकी हैं। यहां की शहरी आबादी में हुई दशकीय वृद्धि पूरे देश शहरी आबादी की वृद्धि से कहीं अधिक है। इसके चलते पहाड़ो को तोड़कर व वनों को काटकर रोड व अन्य आवश्यक सुविधाओं को बढ़ाना पड़ा है।


2. वनों का ह्रास – राज्य के हिमालयी क्षेत्र में अंधाधुंध निर्माण कार्यों से वनों का निरन्तर ह्रास हो रहा है। 1981 से 2011 के दौरान 5.85 प्रतिशत प्राकृतिक वन नष्ट हो चुके हैं।


3. जलीय तंत्र में परिवर्तन – विभिन्न मानवीय गतिविधियों में वृद्धि के कारण राज्य के 45 प्रतिशत प्राकृतिक झरने पूरी तरह से सूख चुके हैं। जबकि 21 प्रतिशत झरने मौसमी बन चुकें हैं। 1981-11 के दौरान इनके बहाव में 11 प्रतिशत कमी आ चुकी है। सिंचाई की क्षमता में 15 प्रतिशत कमी हुई है। पिछले 100 से 110 सालों के बीच भीमताल और नैनीताल जैसी झीलों की क्षमता क्रमशः 5494 घनमीटर व 14150 घनमीटर तक कम हो चुकी है। इस प्रकार जलीय  तंत्र में गड़बड़ी की वजह से भूस्खलन और बाढ़ों की घटना में पिछले तीन दशकों के दौरान 15 से 17 प्रतिशत की वृद्धि हुई है।


4. बांध और बिजली संयंत्रों का निर्माण – राज्य में गंगा और इसकी सहायक नदियों मंदाकिनी, भागीरथी और अलकनंदा पर 505 से अधिक बांध और 244 पनबिजली परियोजनाएं या तो प्रस्तावित हैं या फिर निर्माणधीन हैं। इनमें से 45 काम भी कर रही हैं। 16-17 जून के बाढ़ और भूस्खलन त्रासदी से सर्वाधिक प्रभावित केवल चार धाम क्षेत्रों में ही करीब 70 बांध हैं। पूरे प्रदेश में 95 प्रतिशत से अधिक बांध 2000 के बाद बने हैं। इन निर्माणों से यहाँ का जल, जैव व जमीन तंत्र का समीकरण प्रभावित हुआ है और हो रहा है।


5. गैर शोधित सीवेज – गैर शोधित सीवेज को सीधे नदी में छोड़ना भी एक कारण है। इससे एक तरफ नदी का जल प्रदूषित होता है दूसरी तरफ नदी के किनारे ऊपर उठ जाते हैं। 

6. अवैध खनन – नदी के किनारों पर पत्थरों का अवैध खनन  तेजी से हो रहा है। कानूनी रूप से मशीन द्वारा खुदाई नहीं की जा सकती है। केवल ‘चुगान’ या हाथ से ही पत्थर उठाने की अनुमति है, लेकिन आंकड़े बताते हैं कि राज्य में मशीन से खनन में वृद्धि हुई है, जिससे भूस्खलन की संभावनाएं बढ़ी हैं।

7. तीर्थाटन और पर्यटन – भारी संख्या में सैलानियों और तीर्थयात्रियों का पहुंचना यहाँ की पारिस्थितिकीय तंत्र को गंभीर नुकसान पहुंच रहा हैं। पर्यटकों लिए सुविधाओं को विकसित करने का के  काम बड़े पैमाने पर व अनियंत्रित रूप में किया जाता रहा है।

समस्या समाधान

हिमालय क्षेत्र की प्रमुख विशेषता है प्रचुर वन संसाधन। विकास के लिए बड़े पैमाने पर जंगलों को काटा गया। परिणामस्वरूप जहाँ भूस्खलन, मृदा-क्षरण व बाढ़ की घटनाएं बढ़ीं, वहीं अपनी आधरभूत आवश्यकताओं के लिए जंगल पर निर्भर एक बड़ी आबादी को अपना आधार भी खोना पड़ा है। अतः हिमालय क्षेत्र के वानस्पतिक तंत्र में छेड़छाड़ किये बिना विकास का मार्ग तय करना होगा।

प्रायः सभी हिमालयी राज्यों में निजी व सरकारी कंपनियों की तरफ से जल विद्युत परियोजनाओं की बाढ़ सी आई हुई है। यहाँ बड़े पैमाने पर पहाड़ों को तोड़कर सड़कों व जल विद्युत परियोजनाओं हेतु बांधों व सुरंगों का निर्माण किया गया व किया जा रहा है। पहाड़ों को तोड़ने के लिए विस्फोटकों का इस्तेमाल किया जाता रहा है। चूंकि हिमालय विश्व का सबसे नया व बेहद कमजोर पर्वत है अतः विस्फोटकों के प्रायोग से भूस्खलन की संभावना बढ़ जाती है। अतः इन परियोजनाओं की नए सिरे से समीक्षा किए जाने की आवश्यकता प है। इन परियोजनाओं का निर्माण करते समय हमें ध्यान रखना होगा क कि स्थानीय जल व वनस्पति तंत्र और पहाड़ों को किसी तरह का नुकसान नहीं हो।

राज्य में बढ़ावा दिये जा रहे प्राकृतिक पर्यटन की अवधारणा है पर फिर से विचार करना होगा, ताकि विकास की कीमत हमें पर्यावरण क्षरण के रूप में न चुकानी पड़े। यद्यपि आर्थिक विकास के लिए प्राकृतिक पर्यटन को बढ़ावा दिए जाने की आवश्यकता है, 1 लेकिन ऐसा करते समय क्षेत्रीय पारिस्थितिकी का भी ध्यान रखना होगा। यदि पर्यटन का बेहतर प्रबंधन नहीं किया गया तो पर्यावरण प्रभावित होगा। राज्य में आई आपदा से हमें यह सीख मिली है कि कमजोर पहाड़ी इलाको में पर्यटन की बजाय तीर्थयात्रा आधारित विकास मॉडल बनाना उपयोगी होगा। होटल और ठहरने के लिए बनाई जाने वाली इमारतों के अनियंत्रित निर्माण पर रोक लगानी होगी और यह सब कुछ सरकार की निगरानी में होना चाहिए। इस बात का भी ध्यान रखा जाए कि यहां के पर्यटन उद्योग में ज्यादातर स्थानीय लोग हों।

इसमें कोई संदेह नहीं कि राज्य आर्थिक विकास बहुत जरूरी का है, लेकिन यह विकास कम से कम, पर्यावरण की कीमत पर नहीं होना चाहिए। यदि ऐसा कुछ होता है तो पहले से ही पारिस्थितिकीय रूप से असंतुलित और आपदा की दृष्टि से अधिक संवेदनशील इस पूरे क्षेत्र की स्थिति और अधिक कमजोर होगी और विकास प्रभावित होगा। अतः इस क्षेत्र के विकास हेतु कोई भी नीति बनाते समय हमें इस क्षेत्र के प्राकृतिक संसाधनों – जंगल, जल और जैव विविधताओं  का ध्यान रखना होगा।

आपदा प्रबन्धन

प्राकृतिक आपदाओं से निपटने के लिए राज्य में आस्ट्रेलियाई मॉडल पर आपदा प्रबन्धन मंत्रालय तथा आपदा प्रबन्धन मंत्री की अध्यक्षता में प्रदेश स्तर पर आपदा प्रबन्धन एवं न्यूनीकरण केन्द्र (डी.एम.एम.ए.), राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (डी.एम.ए.), राज्य आपदा प्रतिक्रिया निधि राज्य आपदा न्यूनीकरण निधि (डी.एम.एम.ए.) का गठन किया गया है। इसी प्रकार प्रत्येक जनपद में एक-एक आपदा प्रबंध प्राधिकरण, आपदा प्रतिक्रिया निधियों व आपदा न्यूनीकरण निधियों का गठन किया गया है। इन प्राधिकरणों में कई क्षेत्रों के विशेषज्ञों को सम्मिलित किया गया है। राज्य में प्राकृतिक आपदाओं से निपटने के लिए कई प्रकार के कार्यक्रम (संचार सम्बंधी, खोज व बचाव सम्बंधी, भूकम्परोधी भवन निर्माण सम्बंधी, जन जागरूकता सम्बंधी) चलाये जा रहे हैं। कुछ प्रमुख कार्यक्रम इस प्रकार हैं

जनजागरूकता हेतु भूकम्प सम्बंधी फिल्म ‘डांडी-कांठी की गोद मां’ के प्रदर्शन के अलावा ‘आपदा प्रबन्धन’ नामक त्रैमासिक पत्रिका का प्रकाशन कराया जा रहा है। साथ ही आपदा प्रबन्धन को कक्षा 6 से 10 के पाठ्यक्रमों में सम्मिलित कर पढ़ाया जा रहा है।

राज्य में भवन निर्माण से जुड़े कुछ अभियन्ताओं व राजमिस्त्रियों को भूकम्प अवरोधी भवनों के निर्माण सम्बंधी प्रशिक्षण दिया गया है।

राज्य के प्रायः सभी जिलों में आपदा प्रबन्धन सम्बंधी के कार्ययोजना तैयार की गई। विशेष तौर पर संवेदनशील राज्य के 8 जिलों, 52 विकासखण्डों तथा 65046 गांवों में आपदा प्रबन्धन समितियों तथा आपदा अन्तराक्षेपण दलों की गठन किया गया है।

किसी प्रकार की प्राकृतिक आपदा के उपस्थित हो जाने की स्थिति से निपटने हेतु कुछ चिकित्सकों, अग्निशमक कर्मियों, पुलिस कर्मियों, अधिकारियों, शिक्षकों, राष्ट्रीय सेवा योजना के स्वयंसेवकों, नगर आपदा प्रबन्धन समितियों व पंचायतों के सदस्यों प्रशिक्षित किया गया है।

राज्य के सभी आपातकालीन परिचालन केन्द्रों को आपस मे जोड़ते हुए जिला मुख्यालयों से जोड़ा गया है। राज्य स्तरीय आपातकालीन परिचालन केन्द्रों का टोल फ्री नं. 1070 व जनपद स्तरीय आपातकालीन परिचालन केन्द्रों का टोल फ्री नं. 1077 है। संचार प्रयोजन से लाल टिब्बा (मसूरी) में एक रडार की स्थापना की गई है तथा 10 पर्वतीय जनपदों को सेटेलाइट फोन के माध्यम से जोड़ा गया है।

राज्य के सभी जिलों द्वारा अपने-अपने जनपद की आपदा  प्रबन्धन कार्य योजना तैयार कर ली गई है, आपदा प्रबन्धन के लिए इंतजाम सुनिश्चित करते हुए प्रत्येक जिलाधिकारी को 50 लाख रु. की धनराशि आपदा प्रबन्धन कोष के लिए उपलब्ध कराई गई है।

एस.डी.आर.एफ. –


राज्य में बाढ़, भूस्खलन, भूकंप जैसी प्राकृतिक आपदाओं के प्रति उत्तराखण्ड की संवेदनशीलता को देखते हुए यहाँ तत्काल राहत व बचाव कार्य प्रारम्भ करने के लिए 21 जुलाई, 2013 को राज्य सरकार ने एनडीआरएफ की तर्ज पर एसडीआरएफ के गठन को मंजूरी दी थी।

नदी तट पर निर्माण पर रोक –


आपदा के दौरान नदी तटों पर बसे नगरों व गांवों को ज्यादा क्षति हुई। अतः इससे सबक लेते हुए 1 जुलाई, 2013 से राज्य सरकार ने नदी तटों पर (200 मीटर तक) निर्माण कार्य पर रोक लगा दी है।

राज्य आपदा प्रबन्धन योजना –


राज्य में आपदा की स्थिति में आपदा प्रबन्ध से सम्बंधित कार्यों को सुनियोजित ढंग से करने के लिए राज्य आपदा प्रबन्धन योजना (एसडीएमपी) का गठन किया गया है। जुलाई, 2013 में एक 7 सदस्यीय आपदा प्रबंधन समिति का गठन किया गया है।

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